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चुनावी हार-जीत के मंथन से निकले अमृत और विष को पीने से भाजपा में हिचकिचाहट क्यों?

शिमला। जीतने वाले के सौ साथी, हारने को सहारा कौन दे। हिमाचल विधानसभा चुनाव में भाजपा का रिवाज बदलने का सपना बेशक पूरा नहीं हुआ, लेकिन पार्टी को हार से सबक सीखने की जरूरत है। चुनावी हार की चीर-फाड़ जरूरी है, लेकिन सारा दोष दूसरों पर मढऩे से काम नहीं चलेगा। जयराम सरकार में मंत्री पद के लिए तरसे कांगड़ा जिला के ओबीसी नेता रमेश ध्वाला ने हार का ठीकरा जयराम ठाकुर पर फोड़ दिया। कुछ लोगों को हार का कारण प्रेम कुमार धूमल में नजर आया तो कुछ ने अपने तीर संगठन मंत्री पवन राणा पर छोड़ दिए। कई कह रहे हैं कि जेपी नड्डा दोषी हैं, क्योंकि टिकट बांटने में समझदारी से काम नहीं लिया गया। वहीं, राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा को भाजपा ने ही हराया, कांग्रेस को सत्ता परोस कर दे दी गई। वहीं, बहुमत इस मत को मानने वाला है कि भाजपा को ओपीएस के मुद्दे ने हराया। लेकिन सोचने वाली बात है कि यदि ओपीएस ने हराया तो मंडी जिला में दस में से नौ सीटें भाजपा को कैसे मिली। भाजपा ने मंडी में चेहरे बदले और सफलता पाई। फिर सीएम फैक्टर भी प्रभावी रहा। इससे स्पष्ट है कि अच्छी रणनीति से चलते तो मिशन रिपीट भी कामयाब होता और रिवाज भी बदलता, वरना ओपीएस का मुद्दा गुजरात में भी चलता। ऐसे में सोचने वाली बात है कि जयराम ठाकुर के सिर पर मंडी फतह का सेहरा बंधा है तो अन्य जिलों में हार का ठीकरा उन पर क्यों? हमीरपुर संसदीय क्षेत्र की बात करें तो वहां पर हार के लिए पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर को ही सारा दोष नहीं दिया जा सकता। प्रदेश में विधानसभा का चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़ा गया और इसकी जवाबदेही भी स्थानीय नेताओं की अधिक थी। यह सही है कि हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में हार के लिए धूमल फैक्टर भी एक वजह रहा है लेकिन उन्होंने भाजपा को हराया नहीं बल्कि थोड़ा गहराई से सोचा जाए तो जिस नेता को पार्टी ने 5 साल तक हाशिए पर धकेले रखा, अदृश्य वनवास काटने पर मजबूर किया गया भले ही धूमल ने इस पीड़ा को खुलकर जाहिर न किया हो परंतु प्रदेश में उनको चाहने वालों को यह बात कहां पच सकती थी? भाजपा की हार में यह भी एक प्रमुख कारण रहा कि धूमल को जानने व मानने वालों ने अपने नेता से हो रहे इस सौतेले व्यवहार के कारण अपना रोष जताया।

भाजपा ने उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी के चेहरे पर चुनाव लड़ा था। पुष्कर धामी खुद चुनाव भले हार गए लेकिन भाजपा को सत्ता में दुबारा ले आए। चुनाव हारने के बाद भी धामी को सीएम बनाया गया। वहीं, हिमाचल में प्रेम कुमार धूमल के साथ इससे उल्टा व्यवहार किया गया। भाजपा ने प्रेम कुमार धूमल के नाम पर चुनाव लड़ कर जीत तो लिया लेकिन जेपी नड्डा से सियासी रिश्तों में पुरानी कड़वाहट उनके मुख्यमंत्री बनने में बाधा बन गयी। कह सकते हैं कि भाजपा द्वारा उत्तराखंड में धामी को मुख्यमंत्री बनाने वाली घटना ने पहले से जख्म खाए धूमल व उनके समर्थकों ने अपना समय आने पर सबक सिखाने का काम किया। बात यहीं ख़त्म होती तो ठीक थी लेकिन इस बार के चुनाव से ठीक पहले आलाकमान द्वारा प्रेम कुमार धूमल के चुनाव लडऩे पर सहमति न देने की वजह से भाजपा न केवल हमीरपुर ही हारी बल्कि कांगड़ा व ऊना के जिन विधानसभा क्षेत्रों में धूमल परिवार का जनाधार था वहां भी चारों खाने चित्त हो गयी। यह सही है कि हमीरपुर में पार्टी की हार में धूमल फैक्टर का रोल रहा, लेकिन वजह यह नहीं कि धूमल ने पार्टी को हरवाया बल्कि कारण यह है कि पार्टी ने चुनावों में धूमल को दरकिनार हारने की राह खुद ही चुन ली। भाजपा ने धूमल परिवार के साथ जुड़ी लोगों की भावनाओं को नहीं समझा। जबकि आम जन इस बात को भलीभाँति समझ गया कि प्रेम कुमार धूमल के साथ भाजपा दोहरी चाल चल गयी। शायद यही वो कारण रहा कि लोगों ने भाजपा को ही नकार दिया।

आप कैसे चुनाव जीत सकते थे जब आपने प्रेम कुमार धूमल को इसलिए किनारे कर दिया कि कहीं ये दुबारा जीत कर मुख्यमंत्री बनने का सपना न देख लें। जयराम ठाकुर मंडी जिला से बाहर नहीं निकल पाए तो खुद पार्टी के अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा बिलासपुर में ही फोकस करते रहे। अब तो भाजपा समर्थक बीच-बीच में यह भी कहते नजर आ रहे हैं कि इन चुनावों में जेपी नड्डा की एकमात्र जिद्द भाजपा की हार का कारण बनी है। जब दो-तीन साल पहले ही प्रदेश में मुख्यमंत्री चेहरे को बदलने की आवाज पार्टी के अंदर से उठनी शुरू हो गई थी तो उस चीज को देखकर भी नजरअंदाज किया गया। भाजपा सोचती रही कि पीएम नरेंद्र मोदी के नाम पर इस बार भी वोट मिल जाएगा लेकिन भाजपा भूल गयी कि केरल के बाद सबसे शिक्षित राज्य है हिमाचल प्रदेश और यहां के लोगों ने उपचुनाव में बता दिया था कि विधानसभा चुनावों में यहां के लोग स्थानीय मुद्दों पर वोट डालते हैं न कि राष्ट्रीय मुद्दों पर। प्रदेश में हुए उपचुनाव में मिली करारी हार के चलते भी प्रदेश में मुख्यमंत्री चेहरा नहीं बदला गया जबकि अन्य राज्यों में पार्टी का यह प्रयोग सफल भी रहा और भाजपा रिपीट हुई।

जहां प्रदेश चुनावों से ठीक पहले पार्टी के बहुत से नेताओं को जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री के रूप में पसंद नहीं थे लेकिन जेपी नड्डा शिमला से सीधे जयराम ठाकुर को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर चुनाव उनके नेतृत्व में लडऩे का ऐलान व फरमान सुना गए। कुछ लोग मानते हैं कि यहीं से भाजपा ने चुनाव में अपनी मुश्किलों की नींव भी रख दी थी। यह जेपी नड्डा की ही जिद्द कही जा सकती है कि उन्होंने जयराम ठाकुर का हर मोड़ व हर मंच पर इसलिए बचाव किया कि कहीं प्रेम कुमार धूमल मुख्यमंत्री न बन जाएं लेकिन वे यह भूल गए कि यदि प्रदेश चुनावों में भाजपा जीत दर्ज करती तो भले ही मुख्यमंत्री कोई भी बनता परंतु श्रेय तो इनको ही मिलता और यह विपक्ष के उस आरोप-प्रत्यारोप से कहीं बेहतर होता जिसमें विपक्षी दल विश्व की सबसे बड़ी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के अपने ही राज्य में हुई चुनावी हार के लिए घेराबंदी कर रहे हैं। कह सकते हैं कि आने वाले समय में अभी भाजपा के अंदर और वैचारिक विस्फोट हो सकते हैं तथा इन विस्फोटों के बाद तब जाकर पार्टी अपने नेताओं व कार्यकर्ताओं को फिर से एकजुटता का वह पाठ पढ़ा पाए, जिसमें न तो जयराम ठाकुर, न प्रेम कुमार धूमल और न ही जगत प्रकाश नड्डा के चैप्टर होंगे, उसमें भाजपा का वह अनुशासित संदेश हो सकता है जिसके लिए पार्टी विख्यात है। इतना तय है जीत और हार के मंथन से निकले अमृत और विष को ग्रहण किये बिना भाजपा प्रदेश में आगे नहीं बढ़ पाएगी।

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